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Wednesday, November 12, 2008

समय के मोड़

खाली हूँ मन भरा भरा सा
फूला फूला सा यह मौसम
किंतु हवाये टूट गई है
जाने किस पड़ाव पर -फूलो की आवाजे छूट गई है
दिशा दिशा से हाथ मिलाती -लेकिन भीतर डरा डरा सा

शबनम को छूते डर लगता
फूट न पड़े कंही अंगारे
सपनो से आँखे डरती है -सपनो के ही पंख पसारे
यह क्या हुआ समय को -भीतर सूखा ,ऊपर हरा हरा सा

लौट गई है गाती चिडिया
उड़ते गए धूप के फाहे
धूल धुँआ अल्लम -गल्लम ले -आँगन में उतरे चौराहे
कितना बड़ा मिला जग हमको -लेकिन कितना मरा मरा सा
साभार

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