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Wednesday, November 12, 2008

समय के मोड़

खाली हूँ मन भरा भरा सा
फूला फूला सा यह मौसम
किंतु हवाये टूट गई है
जाने किस पड़ाव पर -फूलो की आवाजे छूट गई है
दिशा दिशा से हाथ मिलाती -लेकिन भीतर डरा डरा सा

शबनम को छूते डर लगता
फूट न पड़े कंही अंगारे
सपनो से आँखे डरती है -सपनो के ही पंख पसारे
यह क्या हुआ समय को -भीतर सूखा ,ऊपर हरा हरा सा

लौट गई है गाती चिडिया
उड़ते गए धूप के फाहे
धूल धुँआ अल्लम -गल्लम ले -आँगन में उतरे चौराहे
कितना बड़ा मिला जग हमको -लेकिन कितना मरा मरा सा
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Saturday, November 8, 2008

हौसला

मै नहीं मानता हूँ
कि कैद परिंदे के पंखो के थपेडे से -लोहे की दीवार पर कोई असर नहीं होता
कि हथेली के प्रहार से -पत्थर टूट नहीं सकता
कम से कम
चोट खायी हथेली के खून से
पत्थर तर - बतर हो सकता है
और
पिंजरे के इर्द- गिर्द टूटे पंखो का
अम्बार इकट्ठा हो सकता है
और जब
आगामी पीढी आए तो देखे
कि
पत्थर बेदाग नही बचा है
परिंदा चुपचाप नही मरा है ।
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Sunday, November 2, 2008

देखते -देखते

जागते हुए सूरज ने देखा -आदमी छह फुट से एक फुट होता हुआ
अपनी उबासी तक रह गया है
धुँआ धरती से उठा -आसमान में फैल गया
शोर तेज हुआ तो -आवाज बैठ गई
टहनी पर बैठे पंछी का गीत -कंठ से आते खून में समाया
और पत्ते पत्ते पर जा लगा
तन की खुशी आत्मा का पर्याय नहीं हो पायी
चलता हुआ वक्त ,सरकते हुए पाँव -छाती पर आ कर टिक गए

फूल और तितलियों का सम्बन्ध -झरने की फुहार
पानी में तैरती -मछलियों के रंग -चरवाहे की बांसुरी

सब के सब
आँख के सफेद मोतिये के आगे
हां से न हो गए

हाथो पर टिकती टिकती बिखर गई -सपन कांच की चूडिया
और ग्लोब पर बैठी -आण्विक आँख

यह सारा का सारा देखना बहुत मुश्किल था
देखते देखते सूरज -समंदर में उतर गया
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